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भारत के बाराबंकी के किंतूर की आबोहवा, मिट्टी की खुशबू और पानी, इमाम खुमैनी की दुनिया में मानवता बचाने की क्रांति में दिखा रहा है असर”

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रिपोर्ट: एके बिन्दुसार (चीफ एडिटर- BMF NEWS NETWORK)

सैयद रिजवान मुस्तफा

इमाम खुमैनी, जिनका असली नाम आयतुल्लाह सैयद रुहुल्लाह मुसावी खुमैनी था, एक ऐसे क्रांतिकारी नेता थे जिन्होंने न केवल ईरान में बल्कि पूरी दुनिया में इंसानियत और न्याय की आवाज का परचम बुलंद किया जो आज लहरा रहा है। उनका जन्म 1902 में ईरान के खुमैन शहर में हुआ, लेकिन उनके पूर्वजों का गहरा संबंध भारत के उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के किंतूर गांव से था। उनके दादा, सैय्यद अहमद मूसवी हिंदी, भारत से नवाबो के साथ ज़ियारत करने गए थे, उस वक़्त अंग्रेजो ने भारतीयों पर जुल्म की इंतहा कर रखी थी,और जायरीनो के लिए इराक में भी,उनको वापस आने में तमाम अड़चने लगाई गई,कई महीने तक भारत में आने की तमन्नाओं के बीच वो ईरान के ख़ुमैन में भारत आने की ख्वाहिश में रहने लगे बाद में वही बस गए,लेकिन उन के दिल मे भारत के बसी मोहब्बत ने अपनी भारतीय जड़ों को कभी नहीं भुलाया नही गया,नस्ल दर नस्ल चली वही मोहब्बत का असर था कि दादा भी और इमाम खुमैनी ‘हिंदी’ लिखने में फक्र महसूस करते थे।

उनके पिता का नाम आयतुल्लाह सैयद मुस्तफा मुसावी और माता का नाम हाजिये आगा खानुम (हजर) था। इमाम खुमैनी का परिवार पैगंबर मोहम्मद के वंशजों में से था और वे सातवें इमाम, इमाम मूसा काज़िम के वंशज थे।

इमाम खुमैनी के पिता की हत्या तब हो गई जब वे केवल पाँच महीने के थे, और उन्हें उनकी माँ और एक चाची ने पाला। 15 साल की उम्र में उनकी माँ और चाची दोनों की मृत्यु हो गई। इमाम खुमैनी ने छः वर्ष की उम्र में कुरान का अध्ययन शुरू किया। उन्होंने अपने प्रारंभिक शिक्षा घर पर और स्थानीय स्कूल में प्राप्त की। 1921 में, उन्होंने अराक शहर के मदरसे में शिक्षा आरंभ की, जो आयतुल्लाह शेख अब्दुल करीम हायरी-यज़्दी के नेतृत्व में चल रहा था।

1922 में, इमाम खुमैनी ने आयतुल्लाह हायरी-यज़्दी के निमंत्रण पर क़ुम शहर के मदरसे में शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने इस्लामी न्यायशास्त्र (शरिया), इस्लामी दर्शन और रहस्यवाद (इरफान) पर वर्षों तक पढ़ाया और इन विषयों पर कई पुस्तकें लिखीं।
1963 में आयतुल्लाह हुसैन बुरुजर्दी की मृत्यु के बाद, इमाम खुमैनी एक मरजा बने और उन्होंने खुले तौर पर अपनी धार्मिक और राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया। 1960 के दशक में शाह की नीतियों, विशेषकर ‘श्वेत क्रांति’ के खिलाफ खड़े होकर उन्होंने विरोध शुरू किया। इमाम खुमैनी ने शाह की पश्चिमीकरण की नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से आवाज उठाई।

इमाम खुमैनी की मानवता की क्रांति

श्वेत क्रांति का विरोध:

1962 में जब शाह की सरकार ने ‘श्वेत क्रांति’ की घोषणा की, जिसमें भूमि सुधार, वन्यजीवों का राष्ट्रीयकरण, राज्य-स्वामित्व वाली कंपनियों का निजीकरण और महिलाओं को मताधिकार देने जैसे सुधार शामिल थे, तो इमाम खुमैनी ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने इसे इस्लामी परंपराओं के खिलाफ और पश्चिमीकरण का षड्यंत्र बताया।

इमाम खुमैनी ने अन्य वरिष्ठ धार्मिक विद्वानों को शाह के खिलाफ एकजुट किया और सरकार की नीतियों के विरोध में एक आंदोलन खड़ा किया। 5 जून 1963 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके बाद पूरे ईरान में बड़े पैमाने पर विरोध हुए। इन विरोध प्रदर्शनों को शाह की सेना ने बर्बरता से कुचल दिया, जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस घटना को ‘ख़ूनिन जून’ (रक्तरंजित जून) के नाम से जाना गया। इमाम खुमैनी को इस घटना के बाद रिहा कर दिया गया, लेकिन उनकी आवाज़ पहले से अधिक प्रखर हो गई
1964 में इमाम खुमैनी ने अमेरिकी सरकार द्वारा शाह को दिए गए विशेषाधिकारों का कड़ा विरोध किया, जिससे उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और इसके बाद उन्हें निर्वासन में भेज दिया गया। इमाम खुमैनी को पहले तुर्की भेजा गया, और एक साल बाद वे इराक के नजफ़ शहर में जाकर बस गए, जहां उन्होंने 13 वर्षों तक अध्ययन और अध्यापन किया। नजफ़ में रहते हुए इमाम खुमैनी ने “विलायत-ए-फ़कीह” (धार्मिक विद्वान का अभिभावकत्व) के सिद्धांत को विस्तारित किया, जिसे बाद में ईरान के इस्लामी गणराज्य का आधार बनाया गया।

1978 में इमाम खुमैनी को इराक से भी निर्वासित कर दिया गया, जिसके बाद वे फ्रांस चले गए। वहां उन्होंने पेरिस के पास नउफ्ल-ले-शातो में अपना मुख्यालय बनाया। इस समय तक इमाम खुमैनी की ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल चुकी थी। फ्रांस से उन्होंने ईरान के लोगों को शाह के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया, और उनके भाषणों और विचारों को कैसेट और किताबों के माध्यम से ईरान में पहुंचाया गया। उनके विचारों ने ईरान में विरोध को और भी अधिक गति दी।

1979 की इस्लामी क्रांति:

1979 की शुरुआत में, ईरान में शाह के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन और हड़तालें शुरू हो चुकी थीं। इस दबाव के कारण 16 जनवरी 1979 को शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी ईरान छोड़कर चले गए। 1 फरवरी 1979 को इमाम खुमैनी निर्वासन से लौटे और उनका तेहरान में एक विशाल स्वागत किया गया। शाह के शासन को समाप्त कर दिया गया, और 11 फरवरी 1979 को इमाम खुमैनी ने इस्लामी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की। इस्लामी गणराज्य की स्थापना के लिए 1 अप्रैल 1979 को जनमत संग्रह कराया गया, जिसमें लगभग 98% लोगों ने इस्लामी शासन का समर्थन किया।

विलायत-ए-फ़कीह (धार्मिक विद्वान का अभिभावकत्व):

इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में “विलायत-ए-फ़कीह” की प्रणाली लागू की गई, जिसके तहत धार्मिक विद्वान (फ़क़ीह) को शासन का अधिकार दिया गया। इस प्रणाली के तहत, ईरान का सर्वोच्च नेता एक धार्मिक विद्वान होता है, जो इस्लामी कानून के आधार पर शासन करता है। इमाम खुमैनी को इस प्रणाली का पहला सर्वोच्च नेता नियुक्त किया गया, और उन्होंने अपने जीवन के अंत तक इस पद को संभाला।

अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ संबंध:

इमाम खुमैनी अमेरिका और पश्चिमी देशों की नीतियों के कड़े आलोचक थे। उन्होंने अमेरिका को “शैतान” (Great Satan) कहा और पश्चिमी संस्कृति को इस्लामिक मूल्यों के लिए खतरनाक माना। इमाम खुमैनी ने ईरान में अमेरिकी प्रभाव को समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयास किया, और उनके शासनकाल में ईरान और अमेरिका के बीच संबंध बेहद खराब हो गए।

रश्दी फतवा

1989 की शुरुआत में, इमाम खुमैनी ने सलमान रुश्दी, एक भारतीय जन्मे ब्रिटिश लेखक, के हत्या का फतवा जारी किया। इमाम खुमैनी ने दावा किया कि रुश्दी की हत्या एक धार्मिक कर्तव्य है, क्योंकि उन्होंने अपनी किताब द सैटेनिक वर्सेज में पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कथित रूप से निंदा की है। रुश्दी की पुस्तक में कुछ ऐसे अंश हैं जिन्हें कुछ मुसलमानों — जिसमें अयातुल्ला इमाम खुमैनी भी शामिल हैं — ने इस्लाम और पैगंबर के प्रति आपत्तिजनक माना। हालांकि रुश्दी ने सार्वजनिक रूप से माफी मांगी, फतवा रद्द नहीं किया गया। इमाम खुमैनी ने स्पष्ट किया कि “यह हर मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह अपनी सम्पत्ति और जीवन का उपयोग करके उसे नरक पहुंचाए, भले ही सलमान रुश्दी तौबा करे और समय का सबसे धार्मिक व्यक्ति बन जाए।”

महात्मा गांधी का सम्मान और उनके आंदोलन बने ईरान में क्रांति लाने का जरिया

इमाम खुमैनी का जीवन मानवता के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का प्रतीक था। महात्मा गांधी के भारत आज़ाद के मिशन से ये काफी मुतासिर थे,गांधी जी और भारत की आजादी का तजकिरा वो अपने पैगाम में आवाम को देते हुए कहते थे,हमे फक्र है महात्मा गांधी ने करबला के 72 शहीदों और हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी को अपनी प्रेणा बनाकर अंग्रेजी से भारत को आजाद कराया।जिसका असर ये रहा 1979 में, उन्होंने ईरान में शाह के तानाशाही शासन के खिलाफ नेतृत्व कर आज़ाद कराया।

यह क्रांति केवल राजनीतिक नहीं थी, बल्कि इंसानियत, न्याय, और समानता की आवाज़ थी। खुमैनी ने न केवल ईरान की जनता को जागरूक किया बल्कि दुनिया को यह संदेश दिया कि शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ना हर इंसान का कर्तव्य है। उन्होंने अपने जीवन का हर पल दूसरों की सेवा और मानवता के उत्थान के लिए समर्पित किया।

बाराबंकी का किंतूर और खुमैनी का भारतीय जुड़ाव

इमाम खुमैनी का संबंध भारत की मिट्टी से उनके पूर्वजों के माध्यम से था। उनके दादा, सैय्यद अहमद मूसवी हिंदी,करबला जियारत के लिए गए रास्ते की तमाम अजियातो को झेलते हुए गए,ब्रिटिश शासन ने बेहद परेशान कर दिया,वहा पहुंचे तो इराक सरकार की इमाम हुसैन के जायरीनों को तंग करने और अजियते लूट खसोट का शिकार होने के बाद भी भारत लौटने की तमन्ना में खुमैन में इंतजार करने लगे आखिर में वही बस गए

किंतूर की आबोहवा, मिट्टी, और पानी का खुमैनी पर इतना गहरा असर था कि उन्होंने अपनी पहचान में ‘हिंदी’ जोड़कर अपनी भारतीय जड़ों को जीवित रखा।

उनका यह भारतीय जुड़ाव, न केवल उनकी पहचान का हिस्सा था बल्कि उनके विचारों में भी झलकता था।

उनकी मानवता की क्रांति में बाराबंकी की उस मिट्टी की खुशबू और भारतीय संस्कृति के तत्व साफ़ नजर आते थे, जो इंसानियत, करुणा, और न्याय के पक्षधर थे।

खुमैनी: इस्लाम धर्म के आयतुल्लाह और दुनियां में इंसानियत कायम रहे के क्रांतिकारी रहनुमा थे

इमाम खुमैनी सिर्फ एक राजनेता और धार्मिक नेता नहीं थे, बल्कि एक गहरे दिल के शायर भी थे। उनकी शायरी में प्रेम, करुणा, और इंसानियत की भावनाएं रची-बसी थीं। उन्होंने अपनी शायरी के तखल्लुस में ‘हिंदी’ का उपयोग किया, जो उनके भारतीय मूल और उनके दादा की स्मृति को जीवित रखने का प्रतीक था। उनकी कविताएं एक तरफ मानवता की गहरी समझ को प्रकट करती हैं, तो दूसरी तरफ उनकी क्रांति का संदेश देती हैं, जिसमें उन्होंने दुनिया को बेहतर और न्यायसंगत बनाने का सपना देखा था।

मौजूदा रहनुमा आयतुल्लाह अली खामेनई: इमाम खुमैनी का मिशन का परचम पूरे दुनिया में लहराने में लगे

इमाम खुमैनी के जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी, आयतुल्लाह अली खामेनई, ने उनके इंसानियत और न्याय के मिशन को आगे बढ़ाया। खामेनई ने न केवल ईरान में, बल्कि पूरी दुनिया में शांति और मानवता के संदेश को फैलाने का काम किया है। उनके नेतृत्व में, ईरान ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोषण, अन्याय, और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई है। खामेनई ने खुमैनी की विरासत को संभालते हुए इंसानियत के उस मिशन को जारी रखा है, जो केवल ईरान के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए है।

इमाम खुमैनी की मानवता की दिशा

खुमैनी का दृष्टिकोण हमेशा से मानवता की सेवा करने का रहा। उनका मानना था कि हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना और समाज में न्याय स्थापित करना है। उनकी इस विचारधारा ने न केवल ईरान में बल्कि पूरी दुनिया में बदलाव की लहर पैदा की। उन्होंने एक ऐसी क्रांति की शुरुआत की, जो अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई। उनकी क्रांति का उद्देश्य न केवल राजनीतिक सुधार लाना था, बल्कि लोगों के दिलों में इंसानियत का बीज बोना था।

इमाम खुमैनी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कैसे एक व्यक्ति की सोच और उसके प्रयास पूरी दुनिया को बदल सकते हैं। उनके नेतृत्व में शुरू हुई क्रांति न केवल ईरान में, बल्कि पूरी दुनिया में इंसानियत, न्याय और सेवा के मूल्यों को पुनर्जीवित करने का कार्य कर रही है। बाराबंकी के किंतूर से लेकर ईरान तक का उनका सफर इंसानियत की सेवा और न्याय की स्थापना के लिए था। उनके विचार, उनकी कविताएं, और उनका संघर्ष आज भी लोगों को प्रेरित करता है कि वे मानवता के पक्ष में खड़े हों और अन्याय के खिलाफ लड़ें।

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