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भारतीय मीडिया फाउंडेशन का सशक्त मीडिया भ्रष्टाचार मुक्त भारत एवं नागरिक पत्रकारिता की स्थापना क्यों और किस लिए।

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  • हमें क्यों करना चाहिए भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रांति” – एके बिंदुसार संस्थापक भारतीय मीडिया फाउंडेशन।

नई दिल्ली।  भ्रष्टाचार क्या है?
आइए पहले हम कुछ बिंदुओं पर चर्चा करते हैं हम भ्रष्टाचार को निजी लाभ के लिए सौंपी गई शक्ति का दुरुपयोग के रूप में परिभाषित करते हैं।

भ्रष्टाचार विश्वास को खत्म करता है, लोकतंत्र को कमजोर करता है, आर्थिक विकास में बाधा डालता है तथा असमानता, गरीबी, सामाजिक विभाजन और पर्यावरण संकट को और बढ़ाता है।

भ्रष्टाचार को उजागर करना और भ्रष्ट लोगों को जवाबदेह ठहराना तभी संभव है जब हम भ्रष्टाचार के काम करने के तरीके और उसे सक्षम बनाने वाली प्रणालियों को समझें।
क्या है मूल बातें…..
भ्रष्टाचार कई रूप ले सकता है और इसमें निम्नलिखित व्यवहार शामिल हो सकते हैं:
लोक सेवकों द्वारा सेवाओं के बदले में धन या एहसान की मांग करना या लेना,
राजनेता सार्वजनिक धन का दुरुपयोग करते हैं या अपने प्रायोजकों, मित्रों और परिवारों को सार्वजनिक नौकरियां या अनुबंध देते हैं,
आकर्षक सौदे पाने के लिए निगम अधिकारियों को रिश्वत दे रहे हैं
भ्रष्टाचार कहीं भी हो सकता है : व्यापार, सरकार, अदालतों, मीडिया और नागरिक समाज में, साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा से लेकर बुनियादी ढांचे और खेल तक सभी क्षेत्रों में।
भ्रष्टाचार में कोई भी शामिल हो सकता है : राजनेता, सरकारी अधिकारी, लोक सेवक, व्यापारी, पत्रकार या आम जनता।
भ्रष्टाचार छुपे तौर पर होता है , अक्सर बैंकरों, वकीलों, लेखाकारों और रियल एस्टेट एजेंटों जैसे पेशेवर समर्थकों, अपारदर्शी वित्तीय प्रणालियों और गुमनाम मुखौटा कंपनियों की मदद से, जो भ्रष्टाचार योजनाओं को फलने-फूलने और भ्रष्ट लोगों को अपनी अवैध संपत्ति को छुपाने का मौका देते हैं।
भ्रष्टाचार अलग-अलग संदर्भों और बदलती परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल लेता है। यह नियमों, कानूनों और यहां तक कि प्रौद्योगिकी में होने वाले बदलावों के जवाब में विकसित हो सकता है।
भारत में भ्रष्टाचार रोकने के लिए बहुत से कदम उठाने की सलाह दी जाती है। उनमें से कुछ प्रमुख हैं-
सभी कर्मचारियों को वेतन आदि नकद न दिया जाये बल्कि यह पैसा उनके बैंक खाते में डाल दिया जाये।
बड़े नोटों का प्रचालन बंद किया जाये।
जनता के प्रमुख कार्यों को पूरा करने एवं शिकायतों पर कार्यवाही करने के लिए समय सीमा निर्धारित हो। लोकसेवकों द्वारा इसे पूरा न करने पर वे दंड के भागी बने।
विशेषाधिकार और विवेकाधिकार कम किये जाएँ या हटा दिए जाएँ।
सभी ‘लोकसेवक’ (मंत्री, सांसद, विधायक, ब्यूरोक्रेट, अधिकारी, कर्मचारी) अपनी संपत्ति की हर वर्ष घोषणा करें।
भ्रष्टाचार करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाये और भ्रष्टाचार की कमाई को राजसात (सरकार द्वारा जब्त) करने का प्रावधान हो।
चुनाव सुधार किये जाएं और भ्रष्ट तथा अपराधी तत्वों को चुनाव लड़ने पर पाबंदी हो।
विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन भारत लाया जाय और उससे सार्वजनिक हित के कार्य किये जाएँ ।

राजनैतिक भ्रष्टाचार पर किये गये शोध बताते हैं कि यदि संचार माध्यम स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो तो इससे सुशासन को बढ़ावा मिलता है जिससे आर्थिक विकास को गति मिलती है।

भारत में 1955 में अखबार के मालिकों के भ्रष्टाचार के मुद्दे संसद में उठते थे। आज मीडिया में भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि मीडिया के मालिक काफी तादाद में संसद में बैठते दिखाई देते हैं। अर्थात् भ्रष्ट मीडिया और भ्रष्ट राजनेता मिलकर काम कर रहे हैं। भ्रष्ट घोटालों में मीडिया घरानों के नाम आते हैं। उनमें काम करने वाले पत्रकारों के नाम भी आते हैं। कई पत्रकार भी करोड़पति और अरबपति हो गए हैं।
आजादी के बाद लगभग सभी बड़े समाचार पत्र पूंजीपतियों के हाथों में गये। उनके अपने हित निश्चित हो सकते हैं इसलिए आवाज उठती है कि मीडिया बाजार के चंगुल में है। बाजार का उद्देश्य ही है अधिक से अधिक लाभ कमाना। पत्रकार शब्द नाकाफी है अब तो न्यूज बिजनेस शब्द का प्रयोग है। अनेक नेता और कारपोरेट कम्पनियां अखबार का स्पेस (स्थान) तथा टीवी का समय खरीद लेते हैं। वहां पर न्यूज, फीचर, फोटो, लेख जो चाहे लगवा दें। भारत की प्रेस कौंसिल और न्यूज ब्राडकास्टिंग एजेन्सी बौनी है। अच्छे लेखकों की सत्य आधारित लेखनी का सम्मान नहीं होता उनके लेख कूड़ेदान में जाते हैं। अर्थहीन, दिशाहीन, अनर्गल लेख उस स्थान को भर देते हैं। लोग विश्वास पूर्वक लिखते नहीं, लिख भी दिया तो अनुकूल पत्र ही छपते हैं बाकी कूड़ेदान में ही जाते हैं। कुछ सम्पादकों की कलम सत्ता के स्तंभों और मालिकों की ओर निहारती है।
2जी स्पेक्‍ट्रम घोटाला मामला ने देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक नई इबादत लिख दी थी। इस पूरे मामले में जहां राजनीतिक माहौल भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दिखा वहीं लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया भी राजा के भ्रष्टाचार में फंसा दिखा। राजा व मीडिया के भ्रष्टाचार के खेल को मीडिया ने ही सामने लाया। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हो! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडिया की पोल खोल दी है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकारों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओं और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते हैं।
लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाये, यह कोई नई बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों/कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिये। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। ऊपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेश पालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्‍लॉक का पत्रकार, अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है।
इसलिए भारतीय मीडिया फाउंडेशन का मानना है की समस्त प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा डिजिटल मीडिया से जुड़े हुए लोगों को राज्य कर्मचारी का दर्जा मिलना चाहिए और उनके लिए भी प्रतिमाह कम से कम 25 हजार रुपए का मानदेय दिया जाना आवश्यक एवं अनिवार्य हैं।

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