रिपोर्ट: निशा कांत शर्मा
- संविधान विरोधी छवि को बदलने की कवायद
- (आलेख : राजेंद्र शर्मा)
इससे मुखर विडंबना दूसरी नहीं होगी। जिस दिन अखबारों की सुर्खियों में मोदी सरकार के इसके फैसले की खबर छपी कि, ‘अब हर साल 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाया जाएगा’, उसी दिन के अखबारों में एक और बड़ी सुर्खी दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कथित शराब घोटाले से जुड़े ईडी द्वारा बनाए गए धनशोधन मामले में, अंतरिम जमानत दिए जाने की थी। इसके साथ, उसी दिन के अखबारों में छपी एक और खबर को भी जोड़ लें, जो बताती थी कि कथित शराब घोटाले से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में, जिसकी जांच सीबीआई कर रही है, अरविंद केजरीवाल की ही न्यायिक हिरासत 25 जुलाई तक के लिए बढ़ा दी गई थी। सरल शब्दों में कहें, तो बाद वाली दो खबरों का संयुक्त रूप से अर्थ यह था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तथाकथित शराब घोटाले के मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री के खिलाफ साक्ष्यों को प्रथम दृष्टया नाकाफी करार देकर, उन्हें जमानत दे दिए जाने के बावजूद, मोदी सरकार ने इसका पुख्ता बंदोबस्त कर रखा था कि वह जेल से बाहर नहीं निकल पाएं। और नरेंद्र मोदी की ही तरह, अपने स्तर पर जनता द्वारा लगातार तीन बार चुने गए एक शीर्ष कार्यपालिका अधिकारी के साथ इस तरह का तानाशाहीपूर्ण सलूक करने वाली सरकार का ही फैसला है कि ”अब हर साल 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाया जाएगा!” वाकई, इससे मुखर विडंबना दूसरी मुश्किल से ही मिलेगी।
यह शायद ही कोई मानने को तैयार होगा कि 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा देश में आंतरिक आपतकाल लगाए जाने की याद दिलाने के लिए ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाए जाने के इस फैसले के पीछे, वाकई मौजूदा सत्ताधारियों की संविधान और संवैधानिक जनतंत्र को बचाने की चिंता है, जिसका कि दावा इस संबंध में प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री समेत, सत्ताधारी कुनबे की ओर से किया जा रहा है। वास्तव में इसे संयोग हर्गिज नहीं माना जा सकता है कि पिछले ही दिनों हुए आम चुनाव में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले एनडीए को जबर्दस्त धक्का लगने के बाद और जनता द्वारा भाजपा को पिछले दो चुनावों में मिले अकेले पूर्ण बहुमत से बहुत पीछे धकेल दिए जाने के बाद ही, अचानक भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने के जरिए, संविधान बचाने की चिंता सताने लगी है। यह सब कितना अचानक है, इसे सिर्फ दो तथ्यों से समझा जा सकता है। पहला, 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने की गजट अधिसूचना, 12 जुलाई को जारी की गई, यानी इस साल की इमरजेंसी की सालगिरह के निकल जाने के पूरे ढाई हफ्ते बाद। इमरजेंसी जो भी, जैसी भी थी, उसके चरित्र के संबंध में क्या इस दौरान कोई ऐसा नया रहस्योद्घाटन हुआ है या नये सच सामने आए हैं, जो ठीक इस मुकाम पर मोदी सरकार को इसका इलहाम हुआ है कि ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाना जरूरी है!
वास्तव में, ऐसा भी नहीं है कि 25 जून को जब इमरजेंसी की ताजातरीन सालगिरह गुजरी थी, मोदी और उनकी सरकार को इमरजेंसी की याद ही नहीं रही हो। उल्टे खुद प्रधानमंत्री मोदी से शुरू कर, वर्तमान सत्ताधारियों ने अपने हिसाब से जी-भर कर इमरजेंसी पर हमले किए थे। वास्तव में इस सब के पीछे भ्रमित या सचेत रूप से भ्रम फैलाने की नीयत से फैलाई गई, यह गलतफहमी और थी कि इस 25 जून को इमरजेंसी के पचास साल हो रहे थे। इस सबके बावजूद, मोदी सरकार को जब उसके हिसाब से इमरजेंसी के पचास साल हो रहे थे, उस मौके पर भी ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने की बात नहीं सूझी। और इस आइडिया के आने में ढाई हफ्ते और निकल गए!
दूसरी बात यह कि क्या यह विचित्र नहीं है कि इमरजेंसी में ज्यादतियां आदि सहने वालों तथा कुर्बानियां देने वालों को ‘श्रद्घांजलि’ अर्पित करने के लिए ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का ख्याल मोदी निजाम को दो कार्यकाल पूरे होने के बाद ही आया है। वैसे, संघ-भाजपा के मामले में यह अचरज की बात हर्गिज नहीं है कि जिन चीजों को वे राजनीतिक रूप से भुनाना चाहते हैं, उन्हें लेकर उनकी पीड़ा सामान्य मानवीय प्रकृति से उल्टी ही चलती है यानी जहां सामान्यत: वक्त जैसे-जैसे गुजरता है, मानवीय पीड़ा घटती जाती है, उनकी गढ़ी हुई पीड़ा बढ़ती ही जाती है। इसलिए, हैरानी की बात नहीं है कि जहां दस साल पहले मोदी राज को इमरजेंसी की चुभन इतनी महसूस नहीं होती थी कि इसका रेचन करने के लिए अलग से एक राष्ट्रीय दिवस मनाना शुरू किया जाता, दस साल गुजरने के बाद उसे ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाना अत्यंत आवश्यक लग रहा है। याद रहे कि ऐसा ही ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाए जाने के फैसले के मामले में भी हुआ था। यह दिवस मनाने की जरूरत का एहसास भी मोदी सरकार को सात साल राज करने के बाद ही कहीं जाकर हुआ था।
पुन: ऐसा नहीं है कि इमरजेंसी की बुराइयों का पता मोदी राज को शुरू से ही नहीं रहा हो। वास्तव में मोदी राज के दस साल में ऐसा कोई साल नहीं गुजरा होगा, जब मोदी राज ने और संघ-भाजपा ने 25 जून के गिर्द अपने इमरजेंसी विरोधी क्रेडेंशियल दिखाने की कोशिश नहीं की होगी। संघ-भाजपा के दुर्भाग्य से उन्हें बार-बार इसकी जरूरत इसलिए पड़ती है कि उनकी इमरजेंसी के विरोध की विरासत में ठीक उतनी ही और वैसी ही सच्चाई है, जैसी और जितनी सच्चाई, उनके वैचारिक पुरखों में अग्रणी, वीडी सावरकर की ब्रिटिश हुकूमत के विरोध की विरासत में है। यह कहानी सरकारी दमन का सामना होते ही, मैदान छोड़कर भाग खड़े होने और आत्मसमर्पण करने पर आमादा होने की ही ज्यादा है, जबकि अपने विश्वासों के लिए डटकर खड़े हो जाने की बहुत ही दुर्लभ मामलों में ही है।
हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर संघ-भाजपा के इमरजेंसी के ‘स्मरण’ के साथ, सोशल मीडिया में विभिन्न स्तरों के संघ-भाजपा (तब जनसंघ) नेताओं के माफीनामों की कहानियां वाइरल हो रही हैं। इनमें आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक, देवरस की चिट्ठीयां सबसे प्रमुख हैं, जो साफ तौर पर दिखाती हैं कि संघ और उसके राजनीतिक बाजू को इमरजेंसी से कोई खास सैद्घांतिक आपत्ति नहीं थी। उल्टे वे तो इमरजेंसी राज और उसके बदतरीन रूप, संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को अपना समर्थन तथा सहयोग देने के लिए भी तत्पर थे, बशर्ते आरएसएस पर लगी पाबंदी उठा ली जाती और उनके लोगों को जेल से छोड़ दिया जाता। जाहिर है कि इन माफीनामों/ चिट्ठीयों की सच्चाई से तो संघ-भाजपा के पक्के पैरोकार भी इंकार नहीं कर सकते हैं ; हां! इस मामले में भी सावरकर के माफीनामों वाले ही तर्क का सहारा लेकर वे इस सब को ‘आत्मरक्षा की चतुर कार्यनीति’ बताकर, इसका बचाव करने की अनैतिक सी कोशिश जरूर करते हैं! बहरहाल, इस सबसे इतना तो साफ हो ही जाता है कि संघ-भाजपा की इमरजेंसी की आलोचनाएं, उनके वाकई इमरजेंसी जैसी तानाशाही के खिलाफ होने की गवाही नहीं देती हैं।
इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि अनेक पैनी नजर रखने वाले राजनीतिक प्रेक्षकों से यह छुपा नहीं रहा है कि ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने के इस ऐलान का और ठीक इस समय पर इस ऐलान का, जबकि इस साल की इमरजेंसी की सालगिरह निकल चुकी है और अगले साल की वही सालगिरह पूरे साढ़े ग्यारह महीने दूर है, इमरजेंसी राज की तानाशाही, ज्यादतियों आदि के विरोध से कुछ खास लेना-देना नहीं है। उल्टे उसका ज्यादा लेना-देना, खुद मोदी राज की ही इसकी आलोचनाओं से है कि वह बिना ऐलान किए, जनतंत्र को समेट कर, देश पर ज्यादा से ज्यादा तानाशाही थोप रहा है। पिछले ही दिनों हुए आम चुनावों में विपक्ष ने सत्ताधारी निजाम की अपनी आलोचनाओं के एक केंद्रीय मुद्दे के तौर पर इस सवाल को उठाया था। और चुनाव प्रचार के दौरान, जब भाजपा के कम से कम चार उम्मीदवारों के ‘संविधान बदलने’ के इरादे जताने और वास्तव में ‘अब की बार चार सौ पार’ के नारे को इन इरादों के साथ जोड़ने के बाद, जब विपक्ष ने संघ-भाजपा के संविधान बदलने पर आमादा होने का मुद्दा उठाया और संविधान की हिफाजत करने का संकल्प जताया, तो जैसा कि अब सभी स्वीकार करते हैं, उसका मतदाताओं के बीच और सबसे बढ़कर सामाजिक रूप से वंचितों के बीच, जबर्दस्त असर हुआ। जाहिर है कि मोदी राज, ‘संविधान हत्या दिवस’ के बहाने आम तौर पर विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस को निशाना बनाकर, अपने संविधान को बदलना चाह रहे होने की इसी छाप को मिटाने की कोशिश कर रहा है।
बेशक, कोई यह दलील दे सकता है कि चुनाव में धक्का लगने के बाद ही सही, अगर संघ-भाजपा का निजाम, अपनी इस संविधान-विरोधी छवि को बदलने की कोशिश कर रहा है और उसके लिए इमरजेंसी के विरोध को प्रतीक बनाने की कोशिश कर रहा है, तब भी इसमें गलत क्या है? आखिरकार, चुनाव नतीजों से सीखना तो जनता की इच्छा की कद्र करना ही है, जिसका स्वागत ही किया जाना चाहिए, न कि विरोध। लेकिन, इस तरह की दलील वही दे सकता है, जिसने संघ-भाजपा निजाम के असली चरित्र और इस निजाम में देश की वास्तविकताओं की ओर से, आंखें ही मूंद रखी हों। हमने शुरूआत में ही, केजरीवाल जमानत और जेल प्रसंग का जिक्र इसीलिए किया कि यह उसी राज का वास्तविक आचरण है, जिसने अब ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का ऐलान किया है। जाहिर है कि केजरीवाल प्रकरण तो सिर्फ एक उदाहरण भर है। ऐसे प्रकरणों को गिनने बैठेंगे, तो गिनती शायद कभी खत्म ही नहीं होगी, जो मोदी निजाम में अघोषित इमरजेंसी चल रहे होने को ही नहीं, इस अघोषित इमरजेंसी के 25 जून 1975 की उस घोषित इमरजेंसी से भी बढ़कर जनतंत्र और संविधान का हत्यारा होने को दिखाते हैं। मोदी राज में मुख्यधारा के मीडिया के साथ जो हुआ है, उससे लेकर, यूएपीए तथा पीएमएलए जैसे कानूनों और ईडी, सीबीआई आदि केंद्रीय एजेंसियों को जिस तरह विरोधियों के खिलाफ हथियार बनाया गया है, उस तक और जिस तरह देश के बड़े हिस्से में खासतौर पर अल्पसंख्यकों व दलितों को निशाना बनाकर बुलडोजर राज तथा मॉब लिंचिंग का राज चलाया जा रहा है, उस सब तक भी, मोदी राज के संविधान और जनतंत्र का इमरजेंसी से बड़ा हत्यारा होने के ही सबूत हैं।
जाहिर है कि मोदी निजाम को इस सच्चाई को नहीं, सिर्फ और सिर्फ अपने संविधान और जनतंत्रविरोधी होने की छवि को ही बदलना है। इमरजेंसी के विरोध का ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का स्वांग, छवि बदलने के लिए, इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश का ही औजार है। यह संविधान की रक्षा का नहीं, उसकी हत्या का ही हथियार है।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*