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भारत एक कांवड़िया प्रधान देश है

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रिपोर्ट: निशा कांत शर्मा 

राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य

1. भारत एक कांवड़िया प्रधान देश है

भारत एक कांवड़िया प्रधान देश है। वो जमाने कब के लद गए, जब भारत एक कृषि प्रधान देश हुआ करता था। तब हम एक पिछड़ा हुआ देश थे। तब तो मोदी जी भी नहीं आए थे। कंगना जी की बात मानें, तो भारत को आजादी तक नहीं मिली थी। पर अब नहीं। अब आजादी भी आ चुकी है, मोदी जी भी आ चुके हैं। अब हम पिछड़े नहीं रहे। हम विकसित देश अब तक अगर नहीं भी बने हैं, तब भी 2047 तक तो पक्का ही विकसित देश बन जाने वाले हैं। ये मोदी जी का वादा है, बल्कि मोदी की गारंटी है।

पेरिस ओलम्पिक से खिलाड़ी जो मैडल जीत कर लाएंगे सो लाएंगे, मोदी जी जल्दी ही इस देश के लिए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति का मैडल जीत कर ले आएंगे। मोदी जी राम को वापस भी ले आए हैं। मोदी जी ने काशी से उज्जैन तक जगमग मंदिर कॉरीडोर बनवाए हैं और आगे-आगे और भी कॉरीडोर बनवाएंगे। मोदी जी ही सैंगोल लाए हैं और उसे अपने नये संसद भवन पर झंडे की तरह फहराए हैं। वही मोदी जी कांवड़िया युग भी तो लाए हैं। और कुछ लाना हो, तो वह भी बता दीजिए, ला दिया जाएगा। मोदी जी इस पारी में बहुतै उदारता के मूड में हैं। देखा नहीं, कैसे बिहार और आंध्र प्रदेश में विशेष दर्जा आते-आते, बाल-बाल ही बचा है।

कांवड़िया युग पर लौटें। मोदी जी कांवड़ नहीं लाए हैं। कांवड़ तो पहले भी होती थी। अंगरेजों के जमाने में भी। शायद उससे भी पहले। जैसे काशी में बाबा विश्वनाथ का मंदिर मोदी जी से पहले भी होता था। जैसे अयोध्या में राम का निवास भी होता था। जैसे नेहरू-वेहरू के टैम में भी भारत का विकास होता था। और कांवड़ें होती थीं, तो कांवड़िए भी पहले से होते ही होंगे। हालांकि यह तय करना मुश्किल है कि पहले कांवड़ आयी या कांवड़िए आए। वैसे यह भी सच है कि कांवड़िए के बिना कांवड़, कांवड़ कहां होती ; वह तो बहंगी रह जाती बहंगी। श्रवण कुमार वाली बहंगी, जिसमें बैठाकर उसने अपने बूढ़े माता-पिता को तीर्थ यात्रा करायी थी। खैर, कांवड़, कांवड़िए, सब पहले भी रहे होंगे, पर कांवड़िया युग, काशी कॉरीडोर की तरह एकदम नयी चीज है, जो मोदी जी लाए हैं और योगी जी, धामी जी, आदि, आदि अपने डबल इंजनिया गणों के साथ लाए हैं।

कांवड़िया युग है, तभी तो हैलीकोप्टरों से आला पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों से, कांवड़ियों पर जगह-जगह पुष्पवर्षा है। राम जी बुरा नहीं मानें, यह उनके टैम से भी आगे का मामला है। वर्ना फूल तो उनके टैम पर भी हुआ ही करते होंगे। उनके टैम में पुष्पक विमान भी थे यानी आकाश से पुष्पवर्षा तो तब भी की ही जा सकती थी। फिर भी किसी भी पुराण में, किसी भी महाकाव्य में, किसी भी किस्से में, कांवड़ियों पर पुष्पवर्षा का प्रसंग नहीं मिलता है — आखिर क्यों? सिंपल है। पुष्पक विमान पर चढ़ने वालों के मन में तब इतनी कांवड़िया-भक्ति नहीं थी। कांवड़ थी, कांवड़िया थे, पर कांवड़िया भक्ति नहीं थी। कांवड़िया भक्ति युग तो मोदी जी ही लाए हैं।

कांवड़िया युग है, इसलिए सड़कों पर कांवड़ियों का राज है। शहरों में, कस्बों में कांवड़ियों का राज है। हर तरफ कांवड़ियों का राज है, क्योंकि राज करने वालों पर ही कांवड़ियों का राज है। कांवड़ियों के राज में सब कुछ है। कांवड़िया राज में जोर का डीजे है। कांवड़िया राज में नाच-गाना है। कांवड़िया राज में नशे की तरंग है। कांवड़िया राज में भीड़ की उचंग है। कांवड़िया राज में कांवड़ों के खंडित होने का शोर है। कांवड़िया राज में, जो सामने पड़ जाए, उसकी धुनाई पर जोर है। कांवड़िया राज में कांवड़िया के लिए मनमानी का लाइसेंस है।

कांवड़िया युग है, सो स्कूल बंद कराए जा रहे हैं ; आखिर सड़कों पर कांवड़िए आ रहे हैं। पर यह अभी सिर्फ हापुड़ में हुआ है और वह भी 26 जुलाई से 2 अगस्त तक के लिए। भक्ति में भी इतनी कंजूसी ; स्कूल बंदी सिर्फ एक हफ्ते की। यह टोकनिज्म नहीं चलेगा। फिर बाकी सारी जगहों का क्या? बाकी जगहों के बच्चों में भक्ति के संस्कार भरना भी क्या हापुड़ के बच्चों जितना ही जरूरी नहीं है। कम से कम कांवड़ मार्ग पर पड़ने वाले सभी शहरों, कस्बों, गांवों के सभी स्कूलों वगैरह में, कांवड़यात्रा के पूरे टैम के लिए वैसे ही छुट्टी होनी चाहिए, जैसे यूपी और उत्तराखंड की सरकारों ने खाने-पीने के सामान के सारे खोमचों, ठेलों, खोकों, दूकानों, ढाबों, रेस्टोरेंटों से, बोर्ड पर मालिकों के पूरे नाम लिखवाए थे, यह साफ करते हुए कि खाने-पीने के सामान का धर्म क्या है? वह तो सुप्रीम कोर्ट को न जाने क्या सूझी और उसने इस आर्डर पर रोक लगा दी, वर्ना कांवड़िया युग विधर्मियों की दुकानों से तो मुक्त ही हो जाता। न रहती किसी विधर्मी की दुकान और न कोई कांवड़िया किसी विधर्मी के छुए से छुआता।

हम तो कहते हैं कि इंसानों के नाम में क्या रखा है, दुकान की जाति और धर्म ही साइन बोर्ड पर लिखवाया जाता, तो सारा झगड़ा ही मिट जाता। कांवड़िया युग में बड़ी शांति और प्रेम से, छुआछूत का भी विकसित रूप आ जाता — धार्मिक छुआछूत! क्यों न हो मोदी जी का संकल्प ही है — सब का साथ, सब का विकास ; फिर छुआछूत का भी विकास क्यों नहीं?

यूपी वगैरह में चुनाव में जरा सी ठोकर क्या लग गयी, मोदी जी कांवड़िया युग लाने के संकल्प से पीछे थोड़े ही हट जाएंगे! हम तो कहते हैं कि कांवड़ियों के लिए रास्ता खाली करने के लिए स्कूलों को बंद करना, मस्जिदों-मजारों वगैरह को पर्दे से ढांपकर अदृश्य करना, वगैरह ही काफी नहीं है। स्कूल, दफ्तर, कारखाने, बाजार वगैरह, सब कुछ कांवड़यात्रा के पूरे सीजन के लिए बंद किया जाना चाहिए और हर तरफ कर्फ्यू जैसा लगा दिया जाना चाहिए, कोरोना वाले लॉकडाउन की तरह — कोई घर से बाहर ही नहीं निकले, कांवड़ियों के सिवा। फिर देखिएगा कि कैसे कोई कांवड़ियों को गुस्सा दिलाएगा? फिर तो कांवड़ियों का तूफान एकदम शांति से गुजर जाएगा। और तूफान अपने पीछे जो कुछ तोड़-फोड़ जाएगा, कूड़ा-कचरा छोड़ जाएगा, उसकी शिकायत करने की हिमाकत कौन करेगा? तूफान है कोई बादे सबा थोड़े ही है, जिधर से गुजरेगा, कुछ न कुछ तो छोड़कर जाएगा।
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*2. समर्थन मूल्य*

किसानों को मोदी जी से क्या प्रॉब्लम है! बताइए‚ निर्मला जी के लगातार सातवें बजट का रिकार्ड बनाने का जश्न ठीक से शुरू भी नहीं हो पाया था ; निर्मला जी के बजट की खुद निर्मला जी और टीम की व्याख्याएं पूरी भी नहीं हुई थीं‚ तब तक किसान चल पड़े विश्वासघात के खिलाफ आंदोलन का ऐलान करने। वही हर बार वाली रट – इस बार भी धोखा दिया‚ पर एमएसपी नहीं दिया ; हमारा न्यूनतम समर्थन मूल्य कहां है! हम एमएसपी लेकर रहेंगे!

पर किसान भाइयों को भी समझना चाहिए कि इतनी उतावली ठीक नहीं है। और उन्हें इतना स्वार्थी भी नहीं होना चाहिए कि वो ही एमएसपी लेकर रहेंगे। मोदी जी हमेशा से एकदम क्लिअर हैं कि एमएसपी उन्हें भी मिलेगी। एमएसपी सब को मिलेगी। एमएसपी अडानी जी को भी मिलेगी। एमएसपी अंबानी जी को भी मिलेगी। एमएसपी‚ चुनावी बॉन्ड हों या नहीं हों‚ बोरों में भरकर टैम्पो में लदवाए जाएं या नहीं लदवाए जाएं‚ नोट भिजवाने वालों को जरूर मिलेगी। ऊँची-ऊँची कुर्सियों पर बैठकर सरकार के काम आने वालों को भी एमएसपी मिलेगी। अकेले किसानों को नहीं मिलेगी। और हां, एमएसपी सबसे पहले किसानों कोे नहीं मिलेगी। किसानों से बड़े दूसरे भी हैं एमएसपी के दावेदार। एमएसपी विधायकों‚ एमपी लोगों को भी मिलेगी। पहले तो दूसरों की सरकार गिराने वालों‚ केसरिया सरकार बनाने वालों‚ आवाजाही कर के दिखाने वालों को मिलेगी। किसान भाई धीरज रखें‚ आएगा‚ उनका भी नंबर आएगा। अब तो बाकायदा बजट से ही एमएसपी बंटने की शुरुआत भी हो गई है। नीतीश बाबू भारी-सा बोझ सिर पर लादकर ले तो गए हैं‚ समर्थन मूल्य का! चंद्रबाबू नाइडू भी। लग्गा लग गया है। मोदी जी की एमएसपी में देर है‚ अंधेर नहीं है!

हां! इसमें जरूर थोड़ा कन्फ्यूजन है कि नीतीश‚ नायडू को जो मिला है‚ न्यूनतम समर्थन मूल्य है या अधिकतम समर्थन मूल्य। समर्थन लेने वाले की तरफ से देखो, तो यह अधिकतम समर्थन मूल्य लग सकता है‚ पर समर्थन देने वाले के लिए तो यह हमेशा न्यूनतम समर्थन मूल्य ही होगा। खैर! शुरुआत हो गई है‚ अधिकतम कहो या न्यूनतम‚ एमएसपी का प्रवाह बना रहेगा। किसानों को कभी दूसरों की खुशी से खुश होना भी सीखना चाहिए – किसी को तो एमएसपी मिल रही है।
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*3. राजनीति तो करने दो यारो!*

इन विपक्ष वालों की चले, तो ये तो पीएम जी को पब्लिक के सामने अपने मन की बात भी नहीं करने देंगे। मन की बात भी सिर्फ मोदी जी के स्पेशल रेडियो प्रोग्राम वाली नहीं। कहते हैं कि उसे तो लोगों ने वैसे भी सुनना-सुनाना बंद कर दिया है। नहीं, ऐसा नहीं है कि बेचारे भगवाइयों को जबरन पकड़-पकड़कर, बैठाकर मन की बात सुनाए जाने से छुट्टी मिल गयी हो। उन बेचारों को तो बदस्तूर हर महीने के आखिरी इतवार को सुबह-सुबह सामूहिक तरीके से बड़े-बड़े टीवी स्क्रीनों के सामने बैठकर पीएम जी की मन की बात वाला रेडियो प्रोग्राम सुनना पड़ता है। बस आम पब्लिक ने ही दूसरों के मन की बात सुनने की मजबूरी से खुद को आजाद कर लिया है। पर विपक्ष वाले तो पब्लिक को पीएम जी के अपने मन की बात सुनाने से ही आजादी दिलाना चाहते हैं। कारगिल विजय दिवस के मौके पर मोदी जी ने कारगिल में सैनिकों के सामने बोलते हुए, अपने से पहले के राज करने वालों को जरा सी खरी-खोटी क्या सुना दी, विपक्षी शर्म-शर्म के नारे लगाने लगे। और शर्म काहे की। कहते हैं कि यह तो शहीदों के याद करने के मौके पर राजनीति करना है और वह भी ओछी राजनीति करना। ऐसा पहले किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया था!

पहले किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया गया था, तो मोदी जी क्या करें? मोदी जी ने तो उनसे नहीं कहा था कि ओछी राजनीति मत करो। लिखित तो छोड़िए, कोई जुबानी एग्रीमेंट भी नहीं था कि अगर आपने ओछी राजनीति नहीं की, तो हम भी ओछी राजनीति नहीं करेंगे। ऐसा भी नहीं है कि पहले वालों के पास भी ऐसा मौका ही नहीं आया हो। मौका आया, फिर भी गंवा दिया और अब उनके उत्तराधिकारी मोदी जी से मांग कर रहे हैं कि उन्हें भी मौका गंवा देना चाहिए ; यह तो इंसाफ की बात नहीं हुई। ऐसे तो पहले वालों ने रेडियो वाली मन की बात भी नहीं की थी, तो क्या इसीलिए मोदी जी अपनी रेडियो वाली मन की बात भी नहीं करते? मोदी जी को नकलची समझ रखा है क्या? मोदी जी नेहरू जी से कंपटीशन तो मानते हैं, लेकिन नकल नेहरू जी की करना भी उन्हें मंजूर नहीं है। मजाल है, जो जैकेट की पॉकेट में या बटनहोल में मोदी जी ने एक बार भी, गुलाब का फूल लगाया हो!

वैसे भी यह मांग ही बड़ी बेतुकी है कि शहीदों को श्रद्धांजलि देने के मौके पर मोदी जी अपने से पहले राज करने वालों को खरी-खोटी नहीं सुनाएं। यह मांग ही नकारात्मक है। श्रद्धांजलि देने के मौके पर मोदी जी को क्या नहीं करेें बताने वाले क्या यह भी बताएंगे कि ऐसे मौके पर मोदी जी को क्या करना चाहिए, क्या कहना चाहिए? पहले वालों को खरी-खोटी सुनानी नहीं चाहिए, अब वालों को खरी-खोटी सुना नहीं सकते, फिर मोदी जी करें भी तो क्या करें? भाषण में पब्लिक के सामने बोलें भी तो क्या बोलें? जय श्रीराम तक बोलने में विरोधी सवाल उठाने लगते हैं? तब क्या मोदी जी ओछी राजनीति हो जाने के डर से कुछ भी बोलेें ही नहीं ; बस जय हिंद कहें और माइक से हट जाएं। तब मोदी के मोदी होने का, धुंआधार वक्ता होने का, देश और पब्लिक को फायदा क्या हुआ। किसी और ने किया हो या नहीं किया हो, कोई और करे न करे, मोदी जी तो अपनी पारी में वही करेंगे — शहीदों को श्रद्धांजलि हो या चुनाव रैली, नेहरू वगैरह को किसी न किसी बहाने से लठियाते रहेंगे ; अपनी छप्पन इंची छाती दिखाते रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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