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बदहाली में जीतीं उपेक्षा की शिकार आशा कर्मी

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रिपोर्ट: निशा कांत शर्मा 

एटा। आजकल आशाकर्मी बदहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। उनकी प्रशासनिक उपेक्षा का आलम यह है कि आशा कर्मियों को तीन-तीन महीनों से मानदेय न मिलने के चलते गुजारा करना मुश्किल हो गया है। हकीकत यह है कि पी एच सी से वाउचर भेजे जाने के बाद भी मानदेय का कहीं अता-पता नहीं है। सबसे बडी़ बात तो यह है कि लगातार भागदौड़ करने के बावजूद उन्हें मिलता ही क्या है। जबकि वह घर-घर जकर सर्वे कर घर के सदस्यों का आंकड़ा जुटाने का काम करती हैं, महिला आरोग्य के तहत क्षेत्र में महिलाओं को एकत्रित कर उनको बच्चों को शुरू से लगने वाले टीकों, साफ-सफाई, गर्भवती महिलाओं को बचाव आदि की जानकारी देने के 150 रुपये, माता बैठक जो तीन महीने में एक बार होती है, के लिए 100 रुपये, मोहल्लों में हैल्प प्रमोशन के लिए 200 रुपये, 9 माह के बच्चों को टीके लगाने हेतु 100 रुपये, डेढ़ साल के बच्चे के 50 रुपये और 5 साल के बच्चे के लिए करीब 75 रुपये मिलते हैं जबकि डिलीवरी कराने हेतु महिला को ले जाने के 400 रुपये मिलते है। कुल मिलाकर एक अधिकर्मी को लगभग एक महीने में 2500 रुपये तक मिल पाते हैं और वह भी समय न मिलें, उस हालत में वह बेचारी कैसे अपना गुजारा कर पायेगी। उस स्थिति में जबकि उसके जिम्मे महिला का अल्ट्रासाउंड के लिए सेंटर पर ले जाना, टीकाकरण, 16 साल तक के बच्चों का रिकार्ड रखने आदि की जिम्मेदारी होती है। सबसे ज्यादा जिम्मेदारी का काम गर्भवती महिला को गर्भावस्था के दौरान आसन्न खतरों से बचाव के तीनों की जानकारी देना और उसका सफल प्रसव कराना है। इन दुश्वारियों-परेशानियों के बावजूद उनका कोई पुरसाहाल नहीं है। जन प्रतिनिधियों तक पर उनकी पीड़ा का संज्ञान होने के बावजूद कोई असर नहीं हुआ है। जबकि वह पिछले महीने ही जिलाधिकारी से मिलकर उन्हें अपनी पीड़ा से अवगत करा चुकी हैं।

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