रिपोर्ट: निशा कांत शर्मा
- संघी कुनबे का संविधान हत्या दिवस : गली में क़त्ल कर चौराहे पर रोने का स्वांग
- (आलेख : बादल सरोज)
11 जुलाई के दिन इधर गृह मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव की तरफ से एक गजट अधिसूचना जारी हुयी, उधर पहले गृहमंत्री उसके बाद प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया। इस अधिसूचना और चहकते हुए उसे ट्विटियाने में कहा गया है कि : “जबकि 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की गयी थी, तत्पश्चात उस समय की सरकार द्वारा सत्ता का दुरुपयोग किया गया और भारत के लोगों पर ज्यादतियां और अत्याचार किये गए, और जबकि भारत के लोगों को, भारत के संविधान और भारत के मजबूत लोकतंत्र पर दृढ विश्वास है। इसलिए भारत सरकार ने आपातकाल की अवधि के दौरान सत्ता के घोर दुरुपयोग का सामना और संघर्ष करने वाले सभी लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए 25 जून को “संविधान हत्या दिवस” घोषित किया है और भारत के लोगों को, भविष्य में, किसी भी तरह के सत्ता के घोर दुरुपयोग का समर्थन नहीं करने के लिए पुनः प्रतिबद्ध किया है।“ और इस तरह से ‘भारत दैट इज इंडिया’ वह दुनिया का वह पहला देश बन गया, जिसमे संविधान के प्रावधानों के तहत, संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने, संविधान और विधि के अनुसार सभी प्रकार के लोगों के साथ भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, न्याय करने की कसम खाकर सरकार बनाने वाले और उसमें प्रधानमंत्री और मंत्री बनने वाले उसी संविधान की हत्या का दिन मनाये जाने का आव्हान और प्रावधान करते हैं।
यह सचमुच में चौंकाने वाली घोषणा है। इसलिए भी कि राष्ट्र-राज्य और विधि-विधान से चलने वाले शासनतंत्र की अवधारणा के प्रचलन में आने के बाद से कुछ प्रतीक ऐसे माने जाने लगे हैं, जिनके बारे में कर्कश और नकारात्मक शब्दों का उपयोग गलत, यहाँ तक कि अपमानजनक और दंडनीय भी माना जाता है। इनमें उन राष्ट्र-राज्यों का संविधान, उनका झंडा और ऐसे ही कुछ अन्य प्रतीक चिन्ह होते हैं। इसलिए संविधान की “हत्या” जैसे अतिरेकी शब्दों का इस्तेमाल करने से आम बातचीत में भी बचा जाता है, जिन पर संविधान की रक्षा का जिम्मा हो, उनसे तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वे कहने-सुनने, लिखने-पढ़ने में ऐसा अतिरेक नहीं करेंगे – मगर मोदी की भाजपा मोदी की भाजपा है, जो तात्कालिक राजनीतिक लाभ की लालसा में कुछ भी कर सकती है, कितना भी नीचे जा सकती है। वे कुपढ़ हैं, दुर्भाषी हैं, मगर इतने नासमझ भी नहीं है कि इन्हें शब्द चयन करना नहीं आता, आता है। ये एकदम सोच-विचार कर अपने हिसाब से शब्द चुनते हैं। इनका कुनबा कभी भी गांधी हत्या नहीं कहता, हमेशा गाँधी वध ही कहता है, क्योंकि ह्त्या किसी निर्दोष को मार डालने के आपराधिक और अनैतिक कृत्य के लिये उपयोग में लाये जाने वाला शब्द है, जबकि वध दुष्टों और दानवों को मार डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता है – इस तरह नैतिक है। ऐसे में ‘संविधान हत्या” शब्द का चयन सिर्फ उतना भर नहीं कहता, जितना भर उसके आगे या पीछे लिखा गया है, इसके निहितार्थ और भी हैं – उन छुपी और अन्तर्निहित मंशाओं के भूत, वर्तमान पर आने से पहले दो बातें उस आपातकाल और उसके दिन को मनाने के कथित उद्देश्य के बारे में, जिनके बहाने ‘संविधान हत्या’ जैसी उक्ति कही गयी है।
पहली तो यह कि निस्संदेह 25 जून 1975 की आधी रात में लगाई गयी इमरजेंसी खराब थी, बहुत खराब थी। इसने करीब 20 महीने के लिए इस देश को तानाशाही की जकड़न में बाँध दिया था, इन 20 महीनों में अनगिनत ज्यादतियां हुईं। विपक्षी दलों के राजनेता ही नहीं, आम लोग भी अत्याचारों के शिकार हुए। इस बारे में इसी जगह पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। मगर सब कुछ के बावजूद यह इमरजेंसी संविधान का उल्लंघन करके नहीं, भारत के संविधान की एक धारा में दिए गए “आतंरिक आपातकाल” के प्रावधान के तहत, भले उसका दुरुपयोग करके, लगाई गयी थी । इस आपातकाल के बाद हुए चुनावों से केंद्र में आई सरकार ने जन भावनाओं और जनादेश का आंशिक सम्मान करते हुए संविधान में 44वां संशोधन किया था और इस धारा को बदल कर उसमे कुछ इस तरह की तब्दीलियाँ की थीं, ताकि भविष्य में इसका इतना निर्मम दुरुपयोग नहीं किया जा सके। इस प्रकार से यह इमरजेंसी लोकतंत्र का स्थगन था, भारत की जनता के लोकतंत्र में विश्वास को आघात पहुंचाना था।
दूसरी और ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि संघ-भाजपा का जो कुनबा इस आपातकाल को संविधान की हत्या बता कर आज छाती पीट-पीटकर स्यापा कर रहा है, यही वह एकमात्र (इंदिरा कांग्रेस को छोड़कर) ऐसा संगठन था, जिसने इस इमरजेंसी का दिल गुर्दा सब खोल-खालकर समर्थन किया था, जिसे वह ज्यादतियां और अत्याचार बता रहा है, उनकी न सिर्फ मुक्त कंठ से सप्तम सुर में सराहना की थी, बल्कि उन संजय गांधी के 5 और इंदिरा गांधी के 20 सूत्रों में सूत्रबद्ध जुल्मी नीतियों को अमल में लाने के लिए अपनी सेवा स्वीकार कराने के लिए याचनाएं की थीं। इस बारे में तब के सरसंघचालक देवरस की इंदिरा गांधी को लिखी चिट्ठियों और जेल में बंद तब के जनसंघियों, आज के भाजपाईयों के माफीनामों के बारे में पहले भी कई बार लिखा जा चुका है।
ऐसे शरीके-जुर्म अब चौराहे पर बैठकर विलाप का जो स्वांग कर रहे हैं, उसके पीछे संविधान का आदर तो कतई नहीं हैं। संविधान के प्रति इनका ‘आदर’ कितना है, यह कुछ सप्ताह पहले हुए चुनावों में खुद इनके श्रीमुख से ये बता चुके हैं, जब एक नहीं, कई-कई नेताओं ने 400 पार के नारे का महत्त्व बताते हुए खुलेआम कहा था कि इतनी सीटें इसलिए चाहिए, ताकि मोदी की शासन त्रयी में संविधान की त्रयोदशी की जा सके। अयोध्या से हारे इनके उम्मीदवार और कर्नाटक के इनके नेता तो अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा किये गए दिखावे के खंडन के बाद भी संविधान बदलने की बात दोहराते ही रहे। अभी साल भर भी नहीं हुआ, जब ‘संविधान हत्या दिवस’ की अधिसूचना निकलवाने और उसे ट्विटियाने वाले मोदी और शाह के घोषित मात-पिता संगठन आर एस एस की आधिकारिक आनुषांगिक भुजा अखिल भारतीय विद्वत परिषद ने प्रयागराज – इलाहाबाद – में बाकायदा पत्रकार वार्ता करके हिन्दू राष्ट्र का संविधान बनाने का एलान किया था, उसका खाका प्रस्तुत किया था, उसके कुछ अंश जारी किये थे।
याद दिलाने की आवश्यकता है कि आज संविधान की रक्षा के लिए बिलख-बिलखकर टसुये बहाने वाले इन्ही सज्जनों के पुरखे थे, जिन्होंने संविधान को उसके बनाए जाने की प्रक्रिया के दिन से ही गरियाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जिस दिन – 26 नवम्बर 1949 को – भारत की निर्वाचित संविधान सभा ने इसे मंजूर कर इसके लागू किये जाने की तारीख 26 जनवरी 1950 का एलान किया था, उसके अगले ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने संविधान सभा द्वारा मान्यता प्राप्त संविधान को सिरे से खारिज करने का एलान किया था और उसकी जगह मनुस्मृति को लागू करने की मांग की थी। उनके मत में यह संविधान दूसरे देशों के संविधानों की नक़ल करके बनाया गया है, इसमें भारतीय और राष्ट्रीय कुछ भी नहीं है – असली भारत की परम्परा तो मनुस्मृति है, जिसे गोलवलकर विश्व और समूची धरा का पहला संविधान मानते थे। उनका यह बयान आर एस एस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ के संपादकीय में संविधान की घोषणा के बाद 30 नवंबर, 1949 को प्रकाशित हुआ था। इसमें ही नहीं, इसके बाद भी बार-बार संघ यही दोहराता रहा है कि संविधान को हटाया जाना चाहिए और मनुस्मृति को लाया जाना चाहिए।
संविधान और उसके प्रति संघ के रुख को 75 बरस गुजर गए – इस दौरान संघ निराकार से भव्य भवनों में साकार हो गया, घर-घर जाकर मांगकर खाने वाले इसके स्वयंसेवक स्वयं की सेवा करते-करते स्थूल से और स्थूलाकार भवति भये, मगर आज तक इनमें से किसी ने भी संविधान के गोलवलकर और संघ द्वारा किये गए तिरस्कार और धिक्कार के बारे में, मनुस्मृति के स्वीकार और सत्कार के बारे में बोले गए बोल वचनों के खंडन और अस्वीकार में एक शब्द नहीं बोला। भूले से भी नहीं सुधारा – इसलिए नहीं सुधारा, क्योंकि संघ और उसके द्वारा नियंत्रित-संचालित भाजपा आज भी उसी धारणा पर कायम है ; आज भी उसके लिए संविधान अस्पृश्य और विजातीय है , मनु स्मृति द्विज और सजातीय है।
इस कुनबे का संविधान द्वेष इतना पुराना ही नहीं है, जब-जब मौक़ा मिलता है, वे इसमें पलीता लगाने, इससे निजात पाने की जुगाड़ तलाशते ही रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में 1999 में सरकार बनी, तो पहली फुर्सत में फरवरी 2020 में न्यायमूर्ति एम वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग का ही गठन कर दिया गया। एक साल में उससे रिपोर्ट तक मांग ली गयी। इसी जनवरी में ठीक संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी से पहले कथित प्राण प्रतिष्ठा समारोह के नाम पर पूरे देश को भगवा ध्वजों से पाटकर तिरंगे को ही पीछे नहीं धकेला, संविधान की 75वीं वर्षगाँठ के आयोजनों को ही फीका कर दिया गया। उसके पहले संसद में अनेक कानूनों को संसद की निगरानी और मंजूरी से बचाने के लिए मनी बिल बनाकर पारित करवाना, राज्यों की सूची में आने वाली खेती-किसानी के तीन कानूनों को वाणिज्य के क़ानून बताकर पारित करवाना, राज्यों के वित्तीय, शैक्षणिक और राजनीतिक अधिकारों में कटौती कर संविधान के संघीय ढाँचे को अप्रासंगिक बनाना आदि-आदि कुछ ताजे संदर्भ हैं। पिछले 10 वर्षों के अपने कार्यकाल में संघ-भाजपा ने संविधान के साथ जो किया है, वह उसे धीरे-धीरे हलाल करने के आपराधिक कुकर्मों की गाथाओं का पुलिंदा है। राष्ट्रपति के पद, उसके अधिकार और गरिमा के अवमूल्यन से शुरू करके मोशा की भाजपा के राज में ऐसी कोई संवैधानिक संस्था या निकाय नहीं बचा, जिसकी हैसियत न गिराई गयी हो। संसदीय लोकतंत्र से लेकर संविधान में लिखे हर लोकतांत्रिक अधिकार की धज्जियां उड़ा दी गयीं, यहाँ तक कि फ़ौज और न्यायपालिका तक को नहीं बख्शा गया, उन्हें भी जहां तक चली, वहां तक काम पर लगा दिया गया। संविधान को धीरे-धीरे मौत की तरफ धकेलना इसे कहते हैं।
अभी कल तक उत्तरप्रदेश में कांवड़ यात्रा के बहाने हिटलर की नाज़ी जर्मनी की अलगाव और पहचान की फासिस्ट कारगुजारी को शब्दशः अमल में लाते हुए जो घिनौना साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया, जिसे रोकने के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा, सही अर्थों में संविधान की हत्या वह है। संविधान की हत्या वह है, जो इस महीने हो रहे त्रिपुरा के पंचायत चुनावों में जिला पंचायत के लिए नामांकन फॉर्म भरने जा रहे कामरेड बादल शील की हत्या और बाकियों को जबरिया रोककर की गयी। संविधान की हत्या वह है, जो मणिपुर में लगातार जारी है। संविधान की हत्या वह थी, जो 6 दिसम्बर 1992 को की गयी थी। इस तरह की अनेक वारदातों को अंजाम देने वाले, संविधान विरोध की मुखर आनुवंशिकता वाले कुनबे के मुंह से “संविधान हत्या” दिवस मनाये जाने का सरकारी प्रावधान “करें गली में क़त्ल, बैठ चौराहे पर रोयें” मार्का स्वांग है, मगरमच्छ के आंसू हैं। मगर इसी के साथ यह दिल की बात जुबां पर आ जाना भी है, मनोविज्ञान की भाषा में इसे फ्रायडियन स्लिप कहते हैं, जिसे सबसे ज्यादा जोर से छुपाने की मंशा होती है, वही घूम-फिरकर बार-बार जुबान पर आ जाती है।
संविधान को हटाना, उसकी हत्या करके मनुस्मृति के प्रेत को उसकी जगह बिठाना संघ-भाजपा का मुख्य लक्ष्य है, जिसे पहले उन्होंने राष्ट्रवाद के नारे में ढाला, उसकी पोल खुल गयी, तो उसे रामनामी ओढ़ाई ; वह भी उतर गयी, तो हिन्दू राष्ट्र का लबादा पहनाने की कोशिश की ; जब उसके असली अर्थ भी भारत की जनता ने समझ लिए, तो आखिर में सनातन का चोला डालकर संविधान-संविधान जपते-जपते बेड़ा पार करना चाहते हैं। संविधान बदलने की आहट भर सुनकर अयोध्या से बद्रीनाथ और चित्रकूट से रामेश्वरम तक जनता ने पटखनी देकर जो जमीन सुंघाई है, उसकी धूल झाड़कर अब वही काम अब संविधान की हत्या का एलान करके करना चाहते हैं।
लेकिन खुद को जितना चतुर वे समझते हैं, उतने वे हैं नहीं और जनता को जितना बुद्धू वे मानते हैं, वह उतनी बुद्धू तो पक्के से नहीं है। वह करीब आधी सदी पुराने आपातकाल के कष्ट, पीड़ा और त्रासदी को भूली नहीं है, ठीक इसीलिए यह भी जानती है कि उस घोषित आपातकाल की तुलना में मोदीराज का अघोषित आपातकाल उससे भी अनेक गुना अधिक बुरा और खतरनाक है – लोकतंत्र से ही नहीं, संविधान से भी बैर रखने वाला है। इस अघोषित इमरजेंसी में जिस तरह का दमन और अत्याचार इस देश ने झेला है, उसके मुकाबले 1975-77 की इमरजेंसी कहीं नहीं ठहरती। इस दमन के आयामों का जो विस्तार और सर्वसमावेशिता है, उसके मुकाबले जिस आपातकाल को ये कोसने का ढोंग कर रहे हैं, वह काफी छोटा नजर आता है। सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय या विपक्ष ही नहीं, असहमत बुद्धिजीवी, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, लोकतंत्र हिमायती, यहाँ तक कि शरणागत होने के लिए तैयार न होने वाले अभिनेता, कवि, साहित्यकार और नाट्यकर्मी भी प्रताड़ित किये जा रहे हैं ; भीमा कोरेगांव के कथित प्रकरण में पूरी चार्जशीट का फर्जीवाड़ा सामने आने के बाद भी बरसों से देश के नामी बुद्धिजीवी जेलों में बंद हैं। यूएपीए मीसा से ज्यादा खतरनाक क़ानून साबित हुआ है। अदालतों तक ने कह दिया कि चार्जशीट निराधार हैं, आरोपों के कोई सबूत नहीं हैं, इसके बाद भी दो-दो मुख्यमंत्रियों को जेलों में रहना पड़ा। अब जो तथाकथित नई विधि संहिताएँ लाई गयीं हैं, वे किन पर इस्तेमाल होंगी, इसे लोग समझने लगे हैं।
विश्वविद्यालयों को तो जैसे खुली जेलों में ही बदल दिया गया है और ऐसा सिर्फ जेएनयू के साथ नहीं हो रहा, सभी का एक-सा हाल है। उस जमाने की सेंसरशिप कानूनन थी, कहकर-बताकर की जाती थी, सिर्फ कुछ ख़ास लोगों के खिलाफ बोलने से रोका जाता था – अघोषित आपातकाल में प्रेस का गला पूरी तरह घोंटा जा चुका है। मीडिया से सिर्फ राजा का ही नहीं, उसके साहूकारों का भी बाजा बजवाया जा रहा है – दूसरों की बात रोकी जाने तक ही नहीं रुक रही यह सेंसरशिप ; झूठ, अर्धसत्य और नफरत फैलाने के जघन्य काम में भी लाई जा रही है ।
कम-से-कम 4 जून के बाद तो मोदी-शाह और उनकी जुंडली को समझ ही लेना चाहिए कि जो शीराजा बिखरना शुरू हुआ है, वह अब इस तरह की शिगूफेबाजी से समेटे भी सिमटने वाला नहीं है।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)